सावन, मैं और भीगे रास्ते
सीने में
जलन की ज्वाला
द्वेष की तपिश
अहम् की अग्नि
स्वाभिमान की ऊष्मा
लिए निकल पड़ी...
सावन के भीगे
रास्तों पर .....
पानी की बौछारों से
ज्वाला फूट फूट
भड़कने लगी
तपिश सूक्ष्म और
अग्नि धुंआ हो के
छूटने लगी देह से
जैसे विसर्जित हो रही
कोई शापित काया नेह से
धुल गये सारे
दुःख विषाद
प्रवाहित जल धारा में
पवित्र भीगे चोले में
अब बची बस
उन्मादित , निरविकार
स्वच्छ ,निर्मल, पारदर्शी
मेरी अंतर आत्मा...
जो देख सकती थी
अपने दिव्य तेज से
सांसारिक कोहरा
जटिल जीवन के बवंडर
और उन से लथपथ
मेरी काया ....
कुछ पल यूँ ही भीगे
रहना चाहती हूँ
महशूस करना चाहती हूँ
इस शीतलता को
डूब जाना चाहती हूँ
उन्माद की गहराईयों में
इससे पहले की
चोला बदल जाये ----
रिया
ज्वाला फूट फूट
ReplyDeleteभड़कने लगी
तपिश सूक्ष्म और
अग्नि धुंआ हो के
छूटने लगी देह से
जैसे विसर्जित हो रही
कोई शापित काया नेह से
....बहुत गहन और सुन्दर अभिव्यक्ति..