Sunday, September 23, 2012

मेहँदी



कभी हया की लाली रचती थी हांथों में 
कभी जहान का प्यार बसता था आँखों में 
देख हांथों की लाली कभी 
प्यार पिया का मापा जाता था 
अपनी दुल्हन की लाली की रंगत देख 
पिया भी मन ही मन इठलाता था 
लाली अब भी रचती  हैं हांथों में 
प्यार अब भी बसता है आँखों में 
पर नए ज़माने की हवा लग गयी इनको भी 
अब मेहँदी लगा के हाथ पानी से नहीं बचाने पड़ते 
पिया को भी कोई टेंशन नहीं रंग तो चड़ना ही हैं
ना दुल्हन के पास टाइम है मेहँदी लगा घंटो 
उसकी हिफाजत करने का और ना ही 
पिया के पास वक़्त है उसकी सौंधी खुशबू 
में अपने प्यार की गहरायी तलाशने का
पर मेहँदी का अस्तित्व तो बरक़रार है और रहेगा 
शायद इसलिए तो मेहँदी ने भी अपना अल्टरनेटिव ढूंड लिया 
और अब इस जहान में ..............
ना हाथों में मेहँदी असली मिलती है  
ना आँखों में प्यार असली !!!!
रिया 

मैं अभिमन्यु हूँ




माँ की गर्भ से निकल 
जैसे ही इस दुनिया में आया 
कालचक्र के चक्र व्यूह में 
मैंने खुद को पाया ....

कैसे जीना है ?
कैसे सांसें लेनी हैं ?
कैसे भूख मिटानी है ?
ये तो माता के गर्भ से ही 
सीख आया ......

अब जीवन के चक्रव्यूह में 
कूद पड़ा हूँ मैं ---
हर परिस्थिति के चक्र को 
भेदता आ  रहा हूँ 
लड़ता जा रहा हूँ ......

परन्तु , 
कालचक्र के अंतिम चरण से 
मैं परिचित नहीं ,
मैं अभिमन्यु हूँ 
इस जीवन चक्र का ....

जीवन के शंखनाद से ही 
चक्र भेदता आ रहा 
अपनी क्षमता का युद्ध मैं 
लड़ता जा रहा ...

दुःख सुख के चक्र ,
पीड़ा तड़प के चक्र ,
विरह मिलन के चक्र 
परांगत योद्धा की तरह 
मैं ढाता गया 
पर अपने मोक्ष का चक्र 
नहीं भेदना आया .....

इस व्यूह के रचनाकार 
के सम्मुख मैं ,
एक प्रबल योद्धा होते हुए 
भी परास्त हूँ क्यूंकि 
जीवन के अंतिम चक्र से मैंने 
खुद को अनभिज्ञ पाया 
और अंततः 
धराशाही हो गया ...

रिया 

Wednesday, August 29, 2012

मिट्टी







इस मिट्टी में जन्मे हैं हम 
इस मिट्टी में मिल जायेंगे 
पुरखों की गाथा है सुन ली 
अपनी गाथा लिख जायेंगे 

इस मिट्टी ने सबको पाला
हम भी वैसे पल जायेंगे 
सुख के दिन चढ़ते हैं जैसे 
दुख शामो में ढल जायेंगे 

इस मिट्टी में वीरों ने 
अपना परचंप लहराया है 
जिसकी खुशबू मात्र से ही 
दुश्मन थर-थर थर्राया है 

मिट्टी के हर कण में गुथी 
कितनी ही कथाएं हैं --
युग बदले पर ये ना बदले 
चिर कालीन  परम्पराएँ हैं 

रिया 

मैं माटी हूँ ..





जब कुछ नहीं था ब्रह्माण्ड में ....
सिर्फ धुएं के बादल थे 
और आग के गोले थे 
वो मैंने झेले थे ......
तप तप कर 
लावे से पक पक कर 
कठोर और मजबूत हुई हूँ मैं 
जाने कितने प्रकाश वर्षों 
से तपती आई हूँ ...
फिर बर्फीली ठण्ड में 
ठिठुरती सिकुड़ती आई हूँ मैं 
इतनी ऊष्मा है अंतर ह्रदय में 
की  फूट पडूँ तो तबाह कर दूँ 
विनाश और प्रलय मचा दूं 
मैं माटी हूँ इस धरती की 
मैं साक्षी हूँ जीवन की 
उसके सृजन की , उत्पत्ति की 
जीवाश्म से ले कर 
सम्पूर्ण प्राणी की ...
मै साक्षी हूँ 
आदम और हअवा की 
मैं साक्षी हूँ पुराणों की ,
गीता की, कुरानों की 
युद्ध भूमि में बहे लहू की ,
माता , पत्नी के अश्रुओं की 
बहनों की लुटती आबरूओं की..
मै साक्षी हूँ ,गुलामी की जंजीरों की
शोषित बीमारों की ..
गद्दार,बागियों की 
बगावत के हुंकार की 
मैं माटी हूँ ,आदि काल से 
इतिहास मुझमे संरक्षित है 
मैं विज्ञान का शोध हूँ
मुझसे ही वर्तमान है 
मै भविष्य की गोद हूँ 
मैं माटी हूँ ..
मैं खुद में एक कहानी हूँ 
तुम मेरी कहानी के पात्र  हो 
तुम मुझसे जन्मे हो 
मुझमे ही सिमटने मात्र हो !!!!

रिया 

Tuesday, August 28, 2012

माटी नयी पुरानी




ये माटी नयी पुरानी 
कहती नित नयी कहानी 

बचपन में  रोटी फीकी लागे
रास आये बस माटी खानी
मैया की नज़रों से बच कर 
कान्हा माटी में करे शैतानी 

ये माटी नयी पुरानी 
कहती नित नयी कहानी 

गर्मी में सूरज यूँ तपता 
धरती माँ का कलेजा फटता 
पानी को तरसे ये माटी 
बरसों यूँ ही साथ निभाती 

ये माटी नयी पुरानी 
कहती नित नयी कहानी 

सावन आता जल बरसाता 
धरती की वो प्यास बुझाता 
धरती तो फिर तृप्त हो जाती 
वर्षा माटी बहा ले जाती 

ये माटी नयी पुरानी 
कहती नित नयी कहानी 

बह बह जो माटी आती 
संग उर्वरक उर्जा लाती
बीजों को ढक लेती दामन में 
फिर हरी भरी फसलें लहरातीं 

ये माटी नयी पुरानी 
कहती नित नयी कहानी 

माटी का एक और रूप है
देव देवियों का स्वरुप है
प्रतिमाओं में जब लग जाती है 
अमृत स्वरूपा बन जाती है

ये माटी नयी पुरानी 
कहती नित नयी कहानी 

जन्म ले इस धरती पे आये 
हम माटी के प्राणी है 
पञ्च तत्व से निर्मित काया 
माटी में मिल जानी है 

ये माटी नयी पुरानी 
कहती नित नयी कहानी 

रिया 

हसरतों का 'मीना बाज़ार'



कभी देखा है-
हसरतों का 'मीना बाज़ार' ?
मैंने गढ़ रखा है 
बड़ा विशाल सा
अधूरी हसरतों का 'मीनाबज़ार' |
यहाँ सब मिलेंगी 

नन्ही हसरतें ....
युवा हसरतें .....
बूढी चरमराती हसरतें ....

वो देखो---
मेरी नन्ही हसरत ,
बड़े बिजली के झूले में
पींगे भर रही है...
और
वो मौत का कुआँ देखा ?
खतरनाक खेल...
जान हथेली पर रखी हुई ,
मेरी युवा हसरत
हिचकोले खा रही है ...
अब
बुढा गयी हैं
हड्डियाँ भी और हसरतें भी
ऊँची पींगे
नहीं भर सकतीं ....
ना ही खतरों का
सामना कर सकती हैं ,
पर
हसरतें तो हैं और रहेंगी...
भले टूटती , बिखरती ,
चरमराती कियूं ना हो ...
आखिरी श्वास तक
सिरहाने पड़ी रहती है
कोई अधूरी हसरत !!!

रिया 

Tuesday, August 21, 2012

अधूरी हसरत




बहुत छोटी थी वो 
हसरतें थी बड़ी शायद 
मांगती थी चांदनी 
पिताजी बहला देते थे खिलोनो से .....
फिर क्या ...
चांदनी में निहारती थी खिलोनो को 

संभलने लगी जब
समझने लगी जब
जी चाहा सारा जग घूम ले
अम्मा ने चूल्हा चौका दिखा दिया ....
हुई वो जवान
पींगे भरने लगे थे अरमान
हसरतों ने दामन में
एक और सितारा टांक दिया
मांग बैठी वो राजकुमार
तो ब्याह करा दिया ....
छोड़ आई अपनों को
अनजानों को अपना लिया
अपनी हसरतो की चुनर ला
पिया के आगे पसार दिया
अब तक अध टंके सितारों वाली चुनर
पसरी है ....
अब तो सितारों की चमक भी नहीं रही
सिर्फ चुभन रह गयी ....
अधूरी हसरतों की चुभन....
रिया ..

Friday, August 3, 2012

रक्षा बंधन



साल भर से रहता इंतज़ार 
जिस दिन का बहनों को 
भाईयों पे लुटाने को प्यार 
ऐसा सुख देता है ये 
रक्षा बंधन का त्यौहार

सुबह सवेरा सज धज के 
आरती का थाल सजाये 
भाई की राह देखती बहना 
कब आ कर वो डोर बंधाये 
बहना बैठी आस लगाये 
कब भईया पे प्यार लुटाये 

सुबह से वो भूखी बैठी 
कभी थाल निहारे कभी 
वो रस्ता देखे.....
कब आएंगे प्यारे भईया 
खिल उठता मुरझाया चेहरा 
जैसे ही दिखते  उसके  भईया 

बस भैया ना अब देर लगा 
हल्दी कुमकुम चन्दन लगा
जल्दी से अब कलाई बढ़ा
हाथों में बहना का प्यार सजा 
बहना को स्नेहयुक्त गले लगाके 
भैया ने भी किये  कुछ वादे 

प्यारी बहना तू ना डरना 
कोई हो मुश्किल मुझसे कहना 
युग युग से है यही हुआ 
हर बहना की है  दुआ 
गवाह बना है सम्पूर्ण संसार
सदा सलामत रहे ये प्यार 

रिया 

सावन, मैं और भीगे रास्ते



सावन, मैं और भीगे रास्ते



सीने में 
जलन की ज्वाला
द्वेष की तपिश 
अहम् की अग्नि
स्वाभिमान की ऊष्मा 
लिए निकल पड़ी...
सावन के भीगे 
रास्तों पर .....
पानी की बौछारों से
ज्वाला फूट फूट 
भड़कने लगी
तपिश सूक्ष्म और
अग्नि धुंआ हो के 
छूटने लगी देह से
जैसे विसर्जित हो रही 
कोई शापित काया नेह से
धुल गये सारे 
दुःख विषाद
प्रवाहित जल धारा में  
पवित्र भीगे चोले में 
अब बची बस 
उन्मादित , निरविकार
स्वच्छ ,निर्मल, पारदर्शी 
मेरी अंतर आत्मा...
जो देख सकती थी 
अपने दिव्य तेज से
सांसारिक कोहरा 
जटिल जीवन के बवंडर
और उन से लथपथ 
मेरी काया ....
कुछ पल यूँ ही भीगे 
रहना चाहती हूँ 
महशूस करना चाहती हूँ
इस शीतलता को
डूब जाना चाहती हूँ 
उन्माद की गहराईयों में 
इससे पहले की  
चोला  बदल जाये ----

रिया

Friday, June 22, 2012



आओ प्रियवर 


आओ प्रियवर , तुझे मैं
एक ऐसे जहां ले चलूँ .......

जहाँ हवा में सुकून हो 
फूलों  में  खुशबू,
दिलों में धड़कन,
और फिजा में जुनून हो
कहोगे जो तुम तो ,मैं
ख़ुशी का कारवां ले चलूँ.......

आओ प्रियवर , तुझे मैं
एक ऐसे जहां ले चलूँ .......

जहाँ शीतल जल धारा हो 
हर आलम दिलकश प्यारा हो
पल- पल  , क्षण -क्षण 
बस मेरा और तुम्हारा हो 
तुम ही कहो ना , मैं 
कहाँ ले चलूँ ............... ?

आओ प्रियवर , तुझे मैं
एक ऐसे जहां ले चलूँ .......

जहाँ वादियों का रूप संवारता हो
जीवन नित नव राग भरता हो
दिल यादों की पींगे भरता 
निश्छल प्रेम अर्पण करता हो
कहो तो मैं तुझे 
वहां ले चलूँ...... ?

आओ प्रियवर , तुझे मैं
एक ऐसे जहां ले चलूँ .......

जहां प्रेम,स्नेह प्रणय का पहर हो
स्वपन सुसज्जित घर हो
ना आंधी , ना तूफां
ना जमाने का डर हो
चलो मैं तुझे ,
उसकी पनाह ले चलूँ.....

आओ प्रियवर , तुझे मैं
एक ऐसे जहां ले चलूँ .......

जहां रक्त रंगित सुमन होगा 
प्रेम आलिंगन  मधुबन होगा 
त्याग कर देहों का बंधन 
मोह माया का स्पंदन ...
चलो मेरे संग प्रियवर 
मैं आत्मा ले चलूँ .....

आओ प्रियवर , तुझे मैं
एक ऐसे जहां ले चलूँ .......

रिया 



 तुझे ढुंढने आ रही 




जाने कियुं ???
आज रात बेहद 
काली, घनी, डरावनी   
खौफनाक सी लग रही ...

चांद तो निकला है 
साथ चलने को ,
पर घटाओं का 
आधिपत्य है उस पर ....

तारे भी टिम - टीमाने
आए पर ,
बादलों का छत्र 
है उन पर .....

अन्धेरे की चादर ओढे 
किसी डगर पे जा रही ,
डरी , सहमी, काँपती सी 
अपने कदम बढा रही 

ढुंढ ले ओ साजन मेरे
मैं तुझे ढुंढने आ रही,
महक तुम्हारे साँसों की 
हर पल मुझे महका रही...

खुश्बू से ही
ढुंढ ले शायद ,
खुश्बू अपनी रूह की 
मैं बिखेरती जा रही ......

ढुंढ ले ओ साजन मेरे
मैं तुझे ढुंढने आ रही ||

रिया




आखिर कियुं??


हाद्सों  पे हाद्से होते रहे....
हम अपने अपनो को खोते रहे ...
वो आतंक का बीज बोते रहे ....
देश के चालक सोते रहे....

उठो जागो अपने लिए
अब देश को तुम ही बचाओगे
भरोसा किया अगर फिर उन पे 
तो निःसन्देह फिर धोखा खाओगे

वही हाड़ वही मांस से बना
वही माँ की कोख से जना
आखिर आतंकी भी तो मानव है
फिर कियुं प्रवृति से दानव है?

घर उजाड़ के  लहू बहाना, 
कियुं उसका स्वभाव है?
लगता है स्नेह प्यार दुलार का
जीवन मे उसके अभाव है ...

ये पैगाम है उन हत्यारों को
मत ललकारो वतन के प्यारो को
गर वो मैदान पे आ गए 
नस्तेनाबूत कर देंगे गुनाह्गारो को

आखिर ......
कियुं ये  दहसत,खून खराबा
अमन चैन कियुं नही भाता ?
दुश्मन बन के आते हो ....
भाई बन कियुं नही आता ??

:( रिया 





पता ही ना चला 


पलकों पे आँसु लिए 
हम भी बैठे थे....
पलकों पे आँसु लिए 
वो भी बैठे थे .......
कब दरिया में तुफान आ गया 
पता ही ना चला ;
ड़ूबते चले गए हम भी 
ड़ूबते चले गए वो भी 
कब प्यार का मुकाम आ गया 
पता ही ना चला ||

खामोशी में बैठ कर 
मुस्कुराए हम भी थे ,
खामोशी में बैठ कर 
मुस्कुराए वो भी थे ,
कब चाहतों का 
सिलसिला जुड गया
पता ही ना चला ||

प्रेम के राग में 
गुनगुनाये हम भी थे,
प्रेम के राग में 
गुनगुनाये वो भी थे,
कब एक ही दिशा में
कारवां मुड गया 
पता ही ना चला ||

पतझड में, सुखे पत्तों से 
मुरझाए हम भी थे  ,
पतझड में, सुखे पत्तों से 
मुरझाए वो भी थे ,
कब बसन्त ने 
फूलों से ढक दिया 
पता ही ना चला ||

अपनी ही लगाई आग में 
सुलगे हम भी थे ,
अपनी ही लगाई आग में
सुलगे वो भी थे ,
आखिर , कब.. किसने..
हमें चकमक थमा दिया 
पता ही ना चला ||

रिया



जी चाहता है


गम  भूल खुशियाँ लुटाने को जी चाहता है 
एक बार फिर प्यार जताने को जी चाहता है

शाम ढलते ही सपनो में आ जाते हो 
तेरी इसी अदा पे जां लुटाने को जी चाहता है 

चाहे कियूं ना लाख मशरूफ रहो तुम 
हाल ए दिल तुम्हे बताने को जी चाहता है 

गर कभी रूठ जाओ जो मुझसे तुम
बार बार तुम्हे मनाने को जी चाहता है 

तुझे खोने से डरती हूँ मैं --------
फिर कियूं सताने को जी चाहता है???

रिया 

Thursday, June 21, 2012



अनंत की ओर


कुछ दिनों पहले
एक आहट सुनी थी मैंने 
उसके आने की ---
और चल पड़ी मैं 
उसी ओर....
खामोश सी आहट 
के पीछे 
जाने कितनी 
दूर चली आई मैं ?
आहट तो अभी भी थी ....
पर मैं मिली नहीं 
अभी उनसे ....
अब इतनी दूर चली आई 
तो कैसे मुड़ जाती 
बिना मिले ..
मैं चलती रही 
कभी ख्वाबो  में डूबी 
कभी मुस्कुरायी
कभी झिझकी , सहमी 
कभी लडखडाई....
फिर साहस बटोरे 
खुद को संभाले 
आगे बढ़  आई...
कभी तो 
अँधेरा हटेगा 
कभी तो सपना
हकीकत से मिलेगा  ..
इसी सोच में 
निर्भीक हो कर
मैं चलती रही
अनंत की ओर.......

रिया


" बेकुसूर "



कल रात चाँद पे 
बड़ा गुस्सा आया ....
रोज़ रात आता है , 
और सारे ख्वाब 
चुरा ले जाता है.....
मैंने भी सोच लिया था 
आने दो मोये को 
ऐसा सबक सिखाउंगी कि
सारी चोरी भूल जाएगा

सिरहाने पे बैठी मैं 
चुपचाप चाँद का 
इंतज़ार करने लगी .....
पर आज 'किस्मत का धनी'
नज़र ही ना आये ....
बादलों से आँख मिचोलि
जो खेल रहा था....

हुह ! 
पर मुझे सताए बिना 
चैन कहाँ उसे ???
आ ही गया आखिर नजर
आज मैं भी कमर कस के 
तैयार बैठी थी ...
धर दबोचा .......
बाँध दिया पल्लू से 
खाट के पावे से ....
हम्म ...अब जा के दिखा 

रात बहुत हो चुकी  थी 
चाँद दुबक के बैठा था 
मै चौकस पहरा दे रही थी 
"आज ना ले जाने दूंगी 
अपने ख़्वाबों को ..."
यही सोचते नींद
की आगोश में चली गयी 
ख्वाबों के संग ......

अरे ये क्या फिर चोरी हो गयी !!!
खिड़की से आती तेज 
रौशनी ने जगा दिया ....
मैंने झट से खाट पे बंधे 
चाँद को देखा , पर ......
वहां तो कोई था ही नहीं 
मेरे गीले पल्लू के सिवा ...
शायद रात भर 
पिघलता रहा था ...
सिसकता रहा था ....
वो बेकुसूर    ||

रिया



तो कोई बात है...


दर्द के अश्क तो रोज बरसते हैं 
कभी प्यार के आंसु भिगोये मन 
तो कोई बात है...

बहारों में महकते हैं सारे गुल 
किसी पतझर में महके चमन 
तो कोई बात है.....

सूना हो आँगन , गीला हो आँचल 
ऐसे में थामे जो कोई दामन 
तो कोई बात है.....

दिन सुहाने चढ़ते, सतरंगी शामें ढलतीं
ऐसे किसी आलम में आये साजन
तो कोई बात है......

बाजार से आईने सौ ख़रीदे होंगे 
दो नयन बने जो  तेरा दर्पण 
तो कोई बात है.....

पुतले प्यार के तो बिखरते ही हैं 
महक से उनकी सुवासित हो कण कण 
तो कोई बात है.....

सब पूजते हैं दीये और बाती से 
"रिया" तन मन तू करदे अर्पण 
तो कोई बात है.......

रिया