रात के ढाई बजे हैं
अचानक मेरी आंख खुल गई
पडोस कि एक बुजुर्गा की चीख
मेरे कानो के परदे भेद गई
जाने कब से चिल्ला रही थी...
गर्मी का पारा पैतालीस डिग्री
को छू रहा था -------
ए. सी. , कूलरो की गढगढाहट में
उसकी चीख कही दब सी गई थी
या फिर शायद ,
अनसुनी कर दी गई थी......
सोच भर से सिहर उठती है आत्मा
के एक दिन हमे भी तो
उसी पडाव से गुजरना है....
आज इतने अपने हैं आस पास
क्या उस पल कोई साथ ना होगा?
क्या वृद्ध अवस्था कोई अभिशाप हैं?
या फिर कोई अछुती बिमारी ?
फिर कियू नही आता कोई पास ?
कियू अकेला छोड देते हैं उस पल सब?
अभी इन सवालो में ही उलझी थी कि-
भोर हो गई.....अंधेरा मिट गया और
रोशनी ने अपना आधिपत्य जमा लिया....
मेरी रात यू ही आंखो में कट गई...
अधूरे जावाबो के साथ..................
रिया